Tuesday, August 4, 2015

मेरी बगिया के फूल

मेरी बगिया के फूल

फूल चाहे मेरी बगिया के हों 
या तुम्हारी
फूल तो फूल ही हैं
फूलों ने सुन्दरता बिखेरनी हैं
फूलों ने महक फैलानी है
फूल तो आंखो को सुकून देते हैं
फूल तो शान्ती का संदेश हैं
कांटो के बीच गुलाब है
कांटो के राजा केक्टस
का फूल भी कितना प्यारा है
कीचड़ में खिलता है कमल
घर हो या बाहर
जंगल हो, नदी हो चाहे 
नदी का किनारा
फूलों की वही प्रकृति है
प्रफुल्लित, आल्हादित करना
न उनका कोई धर्म है ना कोई जाति
क्या दुश्मन के फूल दोस्तों के फूलों से
भिन्न होते हैं?
काश कि यह दुनिया एक
बगिया होती
काश कि हर इन्सान
एक फूल होता
हर चमन में अमन ही अमन होता।

प्रदीप

अगस्त १, २०१५

Saturday, June 20, 2015

"जिन्दगी" के दीवानों को समर्पित

"कभी कभी" "किसी की ख़ातिर" "रूसवाईयां" 
"गुलों में रंग" पिरोती हैं
तो "बदलते रिश्ते" "इज़्ज़त " के लिये
"तेरी रज़ा" के बिना "प्यार का हक़ "
छोड़ देते हैं,
"मेरे हमनव़ा" ये "सारे मौसम तुमसे ही" तो थे
और यूँ तो "मेरी जान है तू"
पर "खेल क़िस्मत का" देखो कि
"रंजिश" में "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम", 
"कभी कभी किसी की ख़ातिर"...

जब " लड़की होना गुनाह नहीं" तो फिर 
"ये ससुराल बेमिसाल" क्यूँ नही?
"सबकी लाड़ली लारैब" आज
" कभी आशना तो कभी अजनबी" है, 
और दिल खोल कर कहती है कि
" आजा सजना मिलिये जुलिये "
या खुदा! 
और " दीवाना किसे बनाएगी ये लड़की "
अब ये आशिक़ी कहीं जान ही ला बैठे
"कभी कभी किसी कि ख़ातिर".....

प्रदीप ( जून २०, २०१५)

Sunday, April 26, 2015

प्रकृति का क़हर

कितने आँसू और कब तक
कोई बहाए
प्रकृति के क़हर पर
दिल को दहलाने की बातें तो
होती रहती हैं
आज दहलाना तो दूर
धरती ही फट गयी
क्या गया क्या खोया
यह जानने का ना तो समय रहा
ना दिमाग़ी सन्तुलन
मैं हूँ या नही
यह भी अहसास नहीं है
तो फिर आसूंओं कि परवाह 
कैसे करूँ 
पर आज इन्सानियत ख़ुद चल कर 
मेरे पास आयी है
अनजान अजनबी 
मेरे अपने बन 
मुझे नया जीवन दे रहै हैं
यह कैसा द्वन्द है मन में
कभी मैं अपने खुदा को कोसता हूँ
तो अगले ही पल उसका शुक्रिया 
जैसा भी जीवन है पर है ना
अपने तो छोड़ गये
पर नये अपने जो आ गये हैं 

प्रदीप ( २६ अप्रैल २०१५)

नेपाल तथा भारत के भूकंप पिड़ितों को श्रद्धान्जलियां एवं समर्पण

Thursday, April 16, 2015

ख़बरें

आज का अख़बार देखा
बलात्कार, ख़ून, आत्महत्या 
मंहगाई, भड़काऊ भाषण
बेईमानी, लूट-खसोट
दिल को छेदने वाली सौ
और छूने वाली एक ख़बर 
कल भी वही सब था और
पहले भी, बरसों से
पर फिर रोज़ सवेरे
इन्तज़ार होता है
एक नयी ख़बर का जो
सुकून दे मन को
नक्कारखाने में 
तूती की आवाज़ सा ही सही,
जो शोर ना हो, संगीत हो।
ख़बरें नही पढ़ने से
सच्चाई को नकारा 
तो नहीं जा सकता
कल आज और कल में
सिमटी सी, सकुचाई सी
सहमी सी जिन्दगी 
खुल कर जीने के पल की
फिर भी राह देखती है
अखबारों में।

प्रदीप / अप्रेल १४, २०१५

Monday, March 9, 2015

परी कथाएँ

परी कथाएँ दिल को छू जाती हैं
परियाँ कल्पना भी होती हैं
और कल्पना से परे भी
एक ऐसी ही कहानी है:
एक नन्ही सी परी
बगिया में आई
चहकती फुदकती
तितलियों की तरह
कभी इस डाल पर
कभी उस डाल पर
सारा आँगन सारी बगिया 
उसकी किलकारियों से 
महकता था
फिर एक दिन वो परी
उड़ चली कहीं और
किसी और बगिया को महकाने
और कल्पना का वह बाग़
खो गया उसकी याद में
उसके फिर आने के इन्तज़ार में

प्रदीप
०९ मार्च २०१५

स्त्री


स्त्री तुम क्या नहीं हो
तुम जीवन हो
तुम जीवनदात्री हो
तुम आकाश
तुम धरा
तुम समुद्र 
तुम समाज
तुम शिक्षा 
तुम परम्परा हो
तुम माता
तुम सहचारिणी
तुम पुत्री
तुम सखा 
तुम शिक्षक 
तुम ही तो हो जिसमें
मैं समाया हूँ
जिससे मैं मैं हूँ 
हे देवी , हे नारी 
तुझे शतशत प्रणाम।

प्रदीप
International Women's Day '2015

Sunday, January 11, 2015

बच्चे कितने

जनवरी ११, २०१५

बच्चों का हँसना-खेलना
किलकारियाँ मारना
कितना अच्छा लगता है
हमेंशा ऐसा क्यूँ होता है कि
जो अच्छा लगे उसपर
अंकुश लगाया जाए
पहले कहा बस दो या तीन बच्चे
होते हैं घर में अच्छे
फिर कहा हम दो हमारे दो
अरे खुदा की देन पर कोई
कैसे बन्दिश लगाए
भला हो साक्षी महाराज का
जो आँगन सूना हो गया था
वह फिर से भरेगा
अब हर हिन्दू परिवार
अपने चार चार बच्चों का
कोटा पूरा करेगा।

प्रदीप
रविवार जनवरी ११, २०१५

(Disclaimer : please find the reference/quote from Shri Sakshi Maharaja, a sadhu and politician before any interpretation)

मेरी दुनिया

जनवरी ०९, २०१५

छोटी सी मेरी दुनिया थी
प्यारी सी मेरी दुनिया थी
स्वच्छन्द सा मेरा जीवन था
ख़ुशियों से भरा मेरा दामन था
जहाँ जी करता मैं जाता था
जो जी करता मैं लिखता था
भरी जवानी में सब बदल गया
बाज़ारों में बम फटने लगे
बसों में गोलियाँ चलने लगी
पहले दुश्मन देश की सीमा पार था
पर अब दुश्मन अनजाना है
पता ही नहीं अपना है या बैगाना है
जाने उसका क्या पैमाना है
हमारा ही कोई भटक गया है
धर्म के नाम पर अटक गया है
अरे हम सभी तो उसके बन्दे हैं
चाहे जैसे पुकारो
यीशु, अल्लाह या फिर राम
जिसने हमें बनाया
छोटे से दिल में रहमत दी
सोचों उसका दिल कितना बड़ा होगा
अरे वो तो मसीहा है
जो अपने बच्चों से ना तो अपमानित होता है
ना सम्मानित
वो तो दया का सागर है जैसे चाहें उसे देखें अपनी ख़ुशियों के लिये फिर कोई बनाये कार्टून या कोई तस्वीर हम कौन होते हैं उसकी पैरवी करने वाले क्या वह इतना कमज़ोर है?
आओ मिलकर बनाऐं एक
बेहतर दुनिया जहाँ ना कोई
आतन्कित होगा
ना ही आतन्कवादी
होगी फिर वही स्वच्छन्दता
होगी फिर वही ख़ुशियाँ ।

Wednesday, January 7, 2015

जिन्दगी पर

जनवरी ०६, २०१५

(" ज़िन्दगी " चैनल के दर्शकों को समर्पित)

"पिया रे" तू कहाँ
"ये गलियाँ ये चौबारा" अब तो
बैगाना हुआ
मैं "पिन्जरे" में बन्द " बन्दिनी"
अपनी "ख्वाईशों" की इतनी बड़ी "क़ीमत"?
हाए, "बेजुबॉं" को तो क़िस्मत की "लकीरें"
भी "इजाज़त" नहीं देती
ये कैसी "माया" है
"कैसी ये क़यामत " है आई
काश कि मैं एक "गौहर" होती
जिसे किसीको पाने की चाहत होती
एक आज़ाद पन्छी होती
मेरी भी कोई जुबां होती।

प्रदीप
जनवरी ६, २०१५

Friday, January 2, 2015

गुरू

0५ सितम्बर २०१४ (शिक्षक दिवस)

दिमाग को झंझोर दे
आशाओं में जीवन फूँक दे
दिलों में संगीत बहा दे
जीवन के इस रंगमंच पर
अभिनय करना सीखा दे
जो पग-पग पल-पल
स्फूर्ति दे, साहस दे, शक्ति दे
ऐसे गुरुओं को प्रणाम..


ईद मुबारक

३० जुलाई २०१४ (ईद उल फितर)

मैं टोपी नहीं पहनता
मैं तो टोपी पहनाता हूँ
मैं इफ्तार नहीं खाता
मैं तो घेवर बंटवाता हूँ
चलो आप कहते हैं कि
अब सांझ हो चली है
मन तो नहीं करता
पर फिर भी कह ही देता हूँ
मुबारक हो भाई मुबारक...



आषाढ़ का एक दिन

०२, अगस्त २०१४
सावन को दस्तक देते
आषाढ़ में
सूरज को धरती से प्यार हो गया
सूरज की नजदीकियों की तपिश से
और प्रेमांध से
धरती लज्जा से लाल हो उठी
इर्षा से हम धरतीवासी
बस झुलस कर रह गए
इंद्र भी जल उठे और
क्षणिक ही सही पर
आज सूरज को छुपा दिया...

मूर्ख बना

०२ अगस्त २०१४
इसको देखा उसको देखा
इसको सुना उसको पढ़ा
मूर्घन्य बनाने मैं चला
पर
मूर्ख बना और धन्य हुआ..

मौसम आजकल

०२ अगस्त २०१४
चकोर की तरह आँखें आसमान में
टकटकी लगाती है
लगता है जैसे
अब मानसून आ गया है
काले बादल तो आते हैं
आँखों को सुकून दे जाते हैं
पर मन फिर भी प्यासा रह जाता है
क्योंकि बादल सिर्फ रंग बदलते हैं
गिरगिट की तरह
कभी काले तो कभी सफ़ेद
और कर जाते हैं हमें पसीना पसीना
अरे, शर्म तो बादलों को आना चाहिए
जो हमारी आशा को निराश कर देते हैं
इसलिए पसीना तो बादलों को आना चाहिए..

फ़ुटबॉल का विश्वकप

०९ जुलाई २०१४

जो चाहे सो आवे
जो चाहे सो पावे
सिज़र ने द्वार खोले
असूवन ने आखें
फीका पड़ा पीला - नीला
हुआ शर्मसार मेज़बान
माचवे तांडव
मूलर, क्लोस, क्रोस, खदिरा
बजावे जर्मनी ढोल मजीरा


Thursday, January 1, 2015

एक और अनेक

१४ नवम्बर २०१४

एक पहिये पर गाड़ी नहीं चलती लम्बी
और आसां
सरकसी शिक्षण ज़रूरी है
दो पहिये पर भी सन्तुलन और लगातार
ध्यान ज़रूरी है
जब और पहिये जुड़ जाएँ 
तो राह होती है आसां 
गति भी तेज़
चाहो तो आसमां आैर अन्तरिक्ष भी
फ़तह हो जाएँ 
इसलिये "एकला चालो" छोड़ो
सबको साथ लेकर चलो
ऊँची उड़ाने भरो

चाँद और सूरज

६ दिसम्बर २०१४

चाँद अपने पूरे शबाब पर था
और सूरज भी
जब चाँद  सूरज को ललकारे
तब प्रकाश असमंजस हो जाता है
आसमां की लाली
ढूँढने लगती है अपना अस्तित्व 
किरणें अपना मार्ग छोड़
क्षितिज में कहीं
विक्षिप्त सी हो जाती हैं
खो सी जाती हैं
हे चाँद तेरा तो, 
वजूद ही सूरज है
उससे टकरा तू
कहाँ खोने चला है, मिटने चला है।

Yes, I need change

24 December 2014

Change

Yes this country needs change
Change from Gandhi to Godse
Change from praying Jesus
to praising Atal and Madan
Change from German to Sanskrit
Change from all religions to one
Change from "haramzaadas"
to "Ramzaadas"
Change from Delhi to Nagpur and 
Ahmedabad
Change from Tata-Birla to Ambani-Adani
Change from Mahange Din 
to achchhe din
Change from poor international image
to the image of most forward nation
But while we are moving ahead 
as nation
Innocent People are still getting killed in
Assam, 
our Jawans are getting killed not 
so much on front but within the country
People dying of hunger and cold
Do you expect a peaceful co-existence
when you move from the philosophy of
Gandhi to Godse? 
Yes, we are changing. 

Hey Ram!

क्षणिक जीवन

२८ अक्टूबर २०१४

कुछ कलियाँ फूल बनने से पहले ही
मुरझा जाती हैं
कुछ सपने बिला वजह
यूँ ही टूट जाते हैं
 माली कुछ समझ पाता है
 नींद 
स्वच्छन्दता , खुला आकाशचपलता
मस्तीख़ुशी
जब क्षणों से भी छोटी हो जाती है तो
स्मित-विस्मित कर जाती हैं 

नव वर्ष

नव वर्ष की पूर्व संध्या २०१४-१५

वही दिन वही रात
फिर भी नया दिन नयी रात
नया कुछ कुछ
नयी आशाएँ
नयी आकांक्षाएँ
नयी उम्मीदें, नयी अपेक्षाएँ
कल जो नया था अब पुराना है
अब जो नया है
कल पुराना होगा
बस यही चक्र
आगे पीछे और फिर आगे
चलो जगाये रखें
इस अलाव को और बिदाई दें
२०१४ को
सुस्वागतम् २०१५ ।

एक सुनामी

२६ दिसम्बर २०१४

जीवन की गहराइयों और
समुद्र की अथाह गहराइयों में
हरदम उथलपुथल मची होती है
उपर से कुछ और व
अन्दर से कुछ और
शान्त और मूक प्रतीत होते
दोनों कब उबल पड़ें 
कहा नहीं जा सकता
दोनों प्राकृतिक पर दोनों कि 
अपनी अपनी प्रकृति 
कब कौन किस पर पार पा ले
कहना मुश्किल
एक तीव्र कंपन ने लहरों को
बेक़ाबू किया और बहा ले गयी
जीवन अपने ही मित्रों का
प्रकृति ने ही प्रकृति का विनाश किया
कुछ बचे जीवनों को तबाह किया
तबाही के मंज़र का एक दशक
हमनें तो भुला दिया और फिर से
दोस्ती कर ली बेदर्द से
जो चुपके से एक दिन अचानक
सब कुछ लील चुका था
पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर कैसा
जीवन में जीवन से बैर कैसा
क्योंकि जल ही तो जीवन है
क्योंकि जल ही तो जीवन है

इन्सानियत

२२ दिसम्बर २०१४

काँपते हाथों को जब रिमोट ने नकार दिया
तो पता चला कि ठंड आ गयी है
खिड़कियों के बाहर जब
सब कुछ दिखाई देना बन्द हो गया 
तो पता चला कि ठंड आ गयी है
जब ट्रेन और हवाई जहाज़ों ने
समय की धारा को बदल दिया
तो पता चला कि ठंड आ गयी है
जब सड़क पर आए दिन
ठिठुरते लोगों ने दम तोड़ना शुरू किया
तो पता चला कि ठंड आ गयी है
जब नन्हें मासूमों को 
दरिन्दों की गोंलियों का शिकार होना पड़ा 
तो पता चला कि ना सिर्फ़ ठंड आ गयी है
पर यह भी पता चला कि इन्सानियत
जम गयी है
अब कोई नन्हा नन्हा नहीं रहा
काश कोई लौटा दे
इन नन्हों का बचपन। 

समुद्र और आकाश

२० दिसम्बर २०१४

समुद्र और आकाश के रिश्ते को
इन्सान कब समझ पाया है,
दोनों की समानता ऐसा
आभास दिलाती है मानो
कोई गहरा सम्बन्ध हो
रंगो की समानता
गहराइयों का एका
अकसर विशाल शान्तता
पर यदा कदा तूफ़ानी हो उठना
कितना सुकून मिलता है
जब भी टकटकी लगाकर देखते हैं
या फिर आँखें बन्दकर लहरों का
संगीत सुनते हैं
दूर कहीं एक दूसरे में खो जाने सा
आभास देने वाले
आसमां और समुद्र
वास्तव में कितने दूर हैं
यह इन्सान कहाँ समझ पाया है
या फिर समझना चाहता है ।

प्रदीप

मेरी अर्धान्गिनी

२४ नवम्बर २०१४

जीवन के अधूरेपन को पूरा करती है
इसिलिये अर्धांगिनी कहलाती है
खिलखिलाते, प्यार करते
लड़ते, झगड़ते
फिर मुस्कराते,
फिर बच्चों की किलकारियां 
फिर उनका भी बड़ा होना, समझदार होना
जीवन चक्र को पूरा करता है
पूर्णता का एहसास दिलाता है
आधे अधूरों को पूरा पूरा करता है
इसिलिये तो वह जीवन साथी होता/होती है
लेकिन पुरुष से ज्यादा स्त्री उस अर्धता को 
पूरी करती है, तभी तो
वह अर्धांगिनी कहलाती है
कभी पुरुष को स्त्री का अर्धांग 
होते सुना है?
यूँ ही चलते रहना
कदम से कदम मिलाते रहना
हमें पूर्णत्व का एहसास दिलाते रहना
और खुद भी लहलहाते रहना.

हम हिन्दुस्तानी

 १५ नवम्बर २०१४


‎हिन्दुस्तां की रगों में
क्यों बेईमानी है?
दिल्ली हो या चित्तौड़
या फिर बम्बई या मद्रास 
स्टेशनों पर
सात की चाय दस में
और अठरा का पानी
बीस में क्यों बिकता है?

पहले हम घर साफ़ और 
सड़कें गन्दा करते थे
(अभी भी करते हैं)
पर अब स्वच्छ भारत में
साफ़ सड़कों पर गन्दगी फैलाकर
उसे वहीं कोनों में छुपा देते हैं
तस्वीरों के लिये

रग रग में झूठ, मक्कारी, बेईमानी
असभ्यता, 
क्या यह मानसिकता हमें
उनन्त बनाएगी?

धरती माँ

२९ जून २०१४

सहनशक्ती अति सहनशक्ती
शायद माँ के कई पर्यायों में है
तभी तो सभी प्रहार सहकर
धरती माँ हमें कुछ नहीं कहती
और कितना निचोड़ेगें हम
अब तो छाती में दूध भी ना रहा
खून भी बूंद बूंद सूख रहा
न गंगा को कहीं का छोड़ा
ना यमुना को
इज्ज़त उतारने में
मतलब संवारने में
इंसान से कमीना कोई है?
पर अब वक़्त आया है
माता को अहिल्या बनकर
कपूतों को मिटाने का
अपने सपूतों को बचाने का...

तन्हा मन

२८ जून २०१४

आज फिर मन तन्हा है
आज फिर कुछ बिखरा बिखरा सा लगता है
ज़िन्दगी के आयाम कुछ बदल से गए हैं
जो पहले इकठ्ठा होता था वो
आज भी इकठ्ठा है, पर औरों को
भ्रमित सा करता
अब cloud और technology का
ज़माना है
इसलिए मिलन भी वहीँ होता है
फिर भी
वो गुजरा ज़माना रह रह कर याद आता है...

नन्हा पन्छी

२८ जून २०१४
वृक्षों की शाखाओं पर
बैठा पंछी
कभी फुर्र से उड़ जाता
कभी फुर्र से वापस आ जाता
कभी पेड़ खुश तो कभी उदास
कभी सुना है पेड़ों का भावुक होना
पर ऐसा भी होता है.. कभी कभी
कभी कभी ऐसा भी होता है..

इन्तज़ार

२७ जून २०१४

उम्र मरने की होती या जीने की
गति आगे ले जाती है या पीछे
गति गति और तेज़ गति
उसका मज़ा क्या होता है
यह हमें कभी पता न चल पायेगा
क्योंकि राह देखती माँ
पथराई आँखों से करेगी वोह इंतज़ार
जो सिर्फ इंतज़ार ही रह जाएगा...

नन्हा बालक

२७ जून २०१४

नन्हे पैरों ने कब दौड़ना सीख लिया
पता ही नहीं चला
नन्ही जुबां ने कब फ़र्राटे से
बोलना शुरू किया
ठीक से याद भी नहीं
वक़्त की रफ़्तार तो वही होती है
बस हम ही उसे कभी धीमा
कभी तेज़ कर देते हैं
गुमसुम सा आभास देने वाला बालक
कब अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रसिद्धि पा गया
पता ही नहीं चला
वक़्त की रफ़्तार तो वही होती है
बस हम ही उसे कभी धीमा
कभी तेज़ कर देते हैं...

अच्छे दिन

२३ जून २०१४

भीषण गरमी का हाहाकार
पटरी से उतरती जिन्दगियां
दस्तक देते काले घने बादल
शंकित मन
क्या कुछ बदलेगा आज, अभी
या हवा इन्हें उड़ा ले जायेगी और
अपेक्षित पथरायी आँखे जस की तस
इंतज़ार करती रहेंगी उन
अच्छे  दिनों का..

तन्हाई

२२ जून २०१४

संगीत का कोई जलसा था या
घूमने फिरने की तमन्ना
जो ले गयी तीन समन्दर पार
कितने दूर पर कितने पास
कितने पास पर कितने दूर
यह तन्हाई है या मन का भ्रम
सब कुछ तो यहीं है सब कुछ तो वही है
सोच रहा हूँ कि मन को उदास कर लूं
चाँद लम्हों के लिए
पर ये मन है की उन्हें दूर मानता ही नहीं 

दिल्ली की सड़कें

१७ जून २०१४

कारों का कारवाँ था या कारों की भीड़
जो भी हो, सब की कोशिश रही कि
आप उसमें शामिल ना हों
पर बुलंदियों की फ़तह हुई
कारवाँ बढ़ता गया और
मंजिलें और दूर होती रही
क्या ज़िन्दगी सड़क का
पर्यायवाची शब्द है ..

फ़ुटबॉल

१५ जून २०१४

उनींदी उत्सुक आँखे
बढ़ता ख़ुमार
भागते कलाबाज़ी दिखाते खिलाड़ी
उनसे भी तेज़ भागते रेफ़री
हज़ारों दर्शक, करोड़ों और
सबका जूनून एक/ गोल एक
Goal भी एक..
आशाएं आकांक्षाएं
आंसू एक, एक ख़ुशी झलकाता एक निराशा
सबको एक सूत्र में पिरोंता, फूटबाल
बिना जूनून की ये कैसी ज़िन्दगीजोश है तो जहान है


जोधपुर

४ जून २०१४

सुनहरा पत्थर
सुनहरी रेत
नीला शहर
जर्जरित किले 
खूबसूरत रंग बिरंगे लोग
चिलचिलाती शरीरभेदी धूप
भागते वाहन, कुछ इधर, कुछ उधर
महानगरों से छोटा और छोटे नगरों से बड़ा
एक प्यारा सा नगर .. जोधपुर 

विरोधाभास

२६ मई २०१४

वो अमलतास के पीत फूलों से सटी राहें
वो गुलमोहर के केसरिया फूलों से पटे पेड़
वो वैशाख में झमझम गिरती बारिश
और मिटटी से उठती सौंधी खुशबू
हमें विरोधाभास में जीने की आदत सी हो गयी है