"जिन्दगी" के दीवानों को समर्पित
"कभी कभी" "किसी की ख़ातिर" "रूसवाईयां"
"गुलों में रंग" पिरोती हैं
तो "बदलते रिश्ते" "इज़्ज़त " के लिये
"तेरी रज़ा" के बिना "प्यार का हक़ "
छोड़ देते हैं,
"मेरे हमनव़ा" ये "सारे मौसम तुमसे ही" तो थे
और यूँ तो "मेरी जान है तू"
पर "खेल क़िस्मत का" देखो कि
"रंजिश" में "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम",
"कभी कभी किसी की ख़ातिर"...
जब " लड़की होना गुनाह नहीं" तो फिर
"ये ससुराल बेमिसाल" क्यूँ नही?
"सबकी लाड़ली लारैब" आज
" कभी आशना तो कभी अजनबी" है,
और दिल खोल कर कहती है कि
" आजा सजना मिलिये जुलिये "
या खुदा!
और " दीवाना किसे बनाएगी ये लड़की "
अब ये आशिक़ी कहीं जान ही ला बैठे
"कभी कभी किसी कि ख़ातिर".....
प्रदीप ( जून २०, २०१५)
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