Wednesday, January 7, 2015

जिन्दगी पर

जनवरी ०६, २०१५

(" ज़िन्दगी " चैनल के दर्शकों को समर्पित)

"पिया रे" तू कहाँ
"ये गलियाँ ये चौबारा" अब तो
बैगाना हुआ
मैं "पिन्जरे" में बन्द " बन्दिनी"
अपनी "ख्वाईशों" की इतनी बड़ी "क़ीमत"?
हाए, "बेजुबॉं" को तो क़िस्मत की "लकीरें"
भी "इजाज़त" नहीं देती
ये कैसी "माया" है
"कैसी ये क़यामत " है आई
काश कि मैं एक "गौहर" होती
जिसे किसीको पाने की चाहत होती
एक आज़ाद पन्छी होती
मेरी भी कोई जुबां होती।

प्रदीप
जनवरी ६, २०१५

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