आज का अख़बार देखा
बलात्कार, ख़ून, आत्महत्या
मंहगाई, भड़काऊ भाषण
बेईमानी, लूट-खसोट
दिल को छेदने वाली सौ
और छूने वाली एक ख़बर
कल भी वही सब था और
पहले भी, बरसों से
पर फिर रोज़ सवेरे
इन्तज़ार होता है
एक नयी ख़बर का जो
सुकून दे मन को
नक्कारखाने में
तूती की आवाज़ सा ही सही,
जो शोर ना हो, संगीत हो।
ख़बरें नही पढ़ने से
सच्चाई को नकारा
तो नहीं जा सकता
कल आज और कल में
सिमटी सी, सकुचाई सी
सहमी सी जिन्दगी
खुल कर जीने के पल की
फिर भी राह देखती है
अखबारों में।
प्रदीप / अप्रेल १४, २०१५
No comments:
Post a Comment