Sunday, April 26, 2015

प्रकृति का क़हर

कितने आँसू और कब तक
कोई बहाए
प्रकृति के क़हर पर
दिल को दहलाने की बातें तो
होती रहती हैं
आज दहलाना तो दूर
धरती ही फट गयी
क्या गया क्या खोया
यह जानने का ना तो समय रहा
ना दिमाग़ी सन्तुलन
मैं हूँ या नही
यह भी अहसास नहीं है
तो फिर आसूंओं कि परवाह 
कैसे करूँ 
पर आज इन्सानियत ख़ुद चल कर 
मेरे पास आयी है
अनजान अजनबी 
मेरे अपने बन 
मुझे नया जीवन दे रहै हैं
यह कैसा द्वन्द है मन में
कभी मैं अपने खुदा को कोसता हूँ
तो अगले ही पल उसका शुक्रिया 
जैसा भी जीवन है पर है ना
अपने तो छोड़ गये
पर नये अपने जो आ गये हैं 

प्रदीप ( २६ अप्रैल २०१५)

नेपाल तथा भारत के भूकंप पिड़ितों को श्रद्धान्जलियां एवं समर्पण

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